हल्टीघाटी का युद्ध

हल्टीघाटी का युद्ध

इतिहास में ऐसे कई मोड़ आते हैं जो इतिहास के साथ-साथ, दुनिया की यादों और वीरता की कहानियों में अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हल्दी घाटी का युद्ध आजादी की आकांक्षा का परिणाम था। यह युद्ध बहुत कम समय तक चला लेकिन वीरता के अनोखे पन्ने इसमें दर्ज हैं। 18 जून की दोपहर में हुआ यह युद्ध, इतिहास की चमकती स्मृति की तरह कायम है।

दुनिया के इतिहास में कम ही ऐसी रणभूमियां हैं जो हल्दी घाटी की तरह प्रसिद्ध हुई और वीरता और बलिदान के इतिहास का मुखर प्रतीक बनीं। यही कारण है कि बहुत कम समय चलने वाला यह युद्ध आज तक बलिदान और वीरता का स्मृति स्मारक है जिसे आज हर भारतीय नमन करता है। हल्दी घाटी से पहले भी कई ऐतिहासिक युद्ध हुए थे। वे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे, वीरता की बात करें तो यह अनोखा उदाहरण सिर्फ हल्दी घाटी का युद्ध है।

भारतीय इतिहास में हल्दी घाटी से पहले तराईन खानवा और पानीपत के युद्ध ऐतिहासिक और युद्ध कला की दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे। उन्होंने इतिहास को नए मोड़ दिए थे, किन्तु जहां तक शौर्य, पराक्रम और समर्पण का प्रश्न है, हल्दी घाटी का युद्ध इन सबसे बढ़कर और अलग था।

इस युद्ध में ऐसी क्या बात थी, जिसके कारण यह चार सौ वर्ष के बाद भी बलिदान की प्रेरणा का प्रतीक बना हुआ है। इस युद्ध के स्मृति दिवस 18 जून पर उन बिन्दुओं पर विचार करना उपयुक्त होगा जिसके कारण हल्दी घाटी की मिट्टी इतिहास में वीरभूमि की तरह दर्ज हो चुकी है। इतिहासकारों के अनुसार हल्दी घाटी का युद्ध मात्र पांच घंटे चला था लेकिन इस थोड़े से समय में महाराणा प्रताप के स्वतंत्रता प्रेम, झाला माना की स्वामी-भक्ति, ग्वालियर नरेश राम सिंह तंवर की अटूट मित्रता, हकीम खां सूरी का प्राणोत्सर्ग, वनवासी पूंजा का पराक्रम, भामाशाह का सब कुछ दान देना, शक्ति सिंह का विलक्षण भ्रातृ-प्रेम व प्रताप के घोड़े चेतक के पावन बलिदान से हल्दी घाटी का कण-कण भीगा हुआ लगता है और यहां आने वाले प्रत्येक जन को श्रद्धावश नमन करने को प्रेरित करता है।

हल्दी घाटी का युद्ध इतिहास में इसलिए भी सुनहरी रेखाओं से सजा है क्योंकि यह युद्ध उस समय के विश्व के शक्तिशाली शासक अकबर के विरूद्ध लड़ा गया संग्राम था। अकबर को हल्दी घाटी के इस युद्ध से पूर्व कल्पना भी नहीं थी कि एक छोटा-सा मेवाड़ राज्य और उसका शासक राणा प्रताप इतना भयंकर संघर्ष कर सकेगा। इतिहास साक्षी है कि प्रताप ने न केवल जमकर संघर्ष किया बल्कि मुगल सेनाओं की दुर्गति कर इस तरह भागने को मजबूर किया कि अकबर ने फिर कभी मेवाड़ की ओर मुंह नहीं किया। प्रताप की इस सफलता के पीछे उनके प्रति प्रजा का प्यार और सहयोग प्रमुख कारण था। राणा प्रताप ने यह सब अपनी योग्यता, ईमानदारी और कर्तव्य परायणता से हासिल किया था। प्रजा का प्यार ही था कि हल्दी घाटी में केवल सैनिक और राजपूत ही नहीं लड़े थे बल्कि वनवासी, ब्राम्हण, वैश्य आदि सभी वर्गों ने स्वतंत्रता के इस समर में अपना बलिदान दिया।
यह आश्चर्य हो सकता है कि एक मुस्लिम शक्ति को ललकार देने के लिए इस समर में प्रताप ने हरावल दस्ते में हकीम खां सूरी को आगे रखा। यानी यह इस बात का प्रतीक भी है कि राणा प्रताप धर्म जाति नहीं योग्यता और विश्वसनीयता को प्रमुखता देते थे। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि प्रताप की सेना के एक भाग का नेतृत्व जहां वैश्य भामाशाह के हाथों में था तो पहाड़ियों पर मुगलों को रोकने के लिए मेवाड़ के वनवासी और उनके मुखिया पूंजा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था।

राणा प्रताप का यह युद्ध एक शासक का दूसरे शासक के विरूद्ध नहीं बल्कि मुगल साम्राज्यवाद एवं मेवाड़ की स्वतंत्रता के बीच था और इसमें मेवाड़ की आजादी की चिरंतन आकांक्षा की विजय हुई थी। इस युद्ध में अकबर का लेखक एवं इतिहासकार अल बदायूंनी भी था। अल-बदायंनी ने भी अप्रत्यक्ष रूप में राणा के सैनिकों की तारीफ की है। हल्दी घाटी युद्ध में कई स्थलों पर ऐसी घटनाएं भी घटित हुई जिन्हें देखकर लगता है कि यह मात्र भूमि ही नहीं बल्कि श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का संदेश देती पावन स्थली है। इस बात को कौन भूल सकता है जब प्रताप मुगल सेनापति मानसिंह को निहत्था पाकर जीवन-दान देकर छोड़ देते हैं। यही वह भूमि है जहां झाला माना अपने स्वामी की रक्षा करने के लिए उनका राजमुकुट स्वयं धारण कर बलिदान दे देता है। इसी युद्धस्थली की माटी इस बात की भी गवाह है कि प्रताप के सेनापति हकीम खां सूरी अपनी अंतिम सांसों में खुदा से मेवाड़ की विजय की दुआ करते हैं।

यही वह स्थल है जहां भाई कभी भाई का दुश्मन था लेकिन मोर्चे पर वे मनमुटाव के बावजूद अपने भाई के प्राणों की रक्षा करते हैं। ऐसा हुआ जब शक्ति सिंह अपने भाई के प्राणों की रक्षा के लिए आगे आए। इस भाई-प्रेम के लिए शक्ति सिंह को अकबर की नाराजगी भी झेलनी पड़ी थी।

हल्दी घाटी की इस पावन युद्धस्थली की न केवल हिन्दू लेखकों ने वरन् अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने भी जमकर प्रशंसा की है। युद्ध-भूमि पर उपस्थित अकबर के दरबारी लेखक अल बदायूंनी के वृतांत में भी राणा प्रताप और उनके साहसी साथियों के त्याग, बलिदान और शौर्य का बखान मिलता है। श्यामनारायण पाण्डेय ने युद्ध का जीवंत वर्णन इस प्रकार किया है-

18 जून, 1576 को सूर्य प्रतिदिन की भांति उदित हुआ। एक ओर अपने प्रिय चेतक पर सवार महाराणा प्रताप स्वतंत्रता की रक्षा के लिए डटे थे तो दूसरी ओर मोलेला गांव में मुगलों की ओर से लड़ने और आए मानसिंह पड़ाव डाले था।

सूर्योदय के तीन घण्टे बाद मानसिंह ने राणा प्रताप की सेना की थाह लेने के लिए अपनी एक टुकड़ी घाटी के मुहाने पर भेजी। यह देखकर राणा प्रताप ने युद्ध प्रारंभ कर दिया। फिर क्या था, मानसिंह तथा राणा की सेनाएं परस्पर भिड़ गई। लोहे से लोहा बज उठा खून के फव्वारे छूटने लगे। चारों ओर लाशों के ढेर लग गये। राणा प्रताप के वीरों ने हमलावरों के छक्के छुड़ा दिए।

यह देखकर मुगल सेना ने तोपों के मुंह खोल दिये। ऊपर सूरज तप रहा था, तो नीचे तोपें आग उगल रही थीं। प्रताप ने अपने साथियों को ललकारा-साथियांे, छीन लो इनकी तोपेंे। धर्म व मातृभूमि के लिए मरने का अवसर बार-बार नहीं आता। तन्मय योद्धा यह सुनकर पूरी ताकत से शत्रुओं पर पिल पड़े। राणा की आंखें युद्धभूमि में देश और धर्म के द्रोही मानसिंह को ढूंढ रही थीं। वे उससे दो-दो हाथकर धरती को उसके भार से मुक्त करना चाहते थे। राणा प्रताप ने पूरी ताकत से निशाना साधकर अपना भाला फेंका, पर अचानक महावत सामने आ गया। भाले ने उसकी ही बलि ले ली। उधर मानसिंह हौदे में छिप गया। हाथी बिना महावत के ही मैदान छोड़कर भाग गया। भागते हुए उसने अनेक मुगल सैनिकों को जहन्नुम भेज दिया।

मुगल सेना में इससे निराशा फैल गयी। तभी रणभूमि से भागे मानसिंह ने एक चालाकी की। उसकी सेना के सुरक्षित दस्ते ने ढोल नगाड़ों के साथ युद्धभूमि में प्रवेश किया और यह झूठा शोर मचा दिया कि बादशाह अकबर खुद लड़ने आ गए हैं। इससे मुगल सेना के पांव थम गये। वे दुगने जोश से युद्ध करने लगे।

इधर राणा प्रताप घावों से निढाल हो चुके थे। मानसिंह के बच निकलने का उन्हें बहुत खेद था। उनकी सेना सब ओर से घिर चुकी थी। मुगल सेना संख्याबल में भी तीन गुनी थी, फिर भी वे पूरे दम से लड़ रहे थे।

ऐसे में यह रणनीति बनाई गई कि पीछे हटते हुए मुगल सेना को पहाड़ियों की ओर खींच लिया जाए। इस पर कार्यवाही प्रारंभ हो गयी। ऐसे समय में झाला मानसिंह ने आग्रहपूर्वक उनका छत्र और मुकुट स्वयं धारण कर लिया। उन्होंने कहा- महाराज, एक झाला के मरने से कोई अंतर नहीं आएगा। यदि आप बच गये, तो कई झाला तैयार हो जायेंगे, पर यदि आप नहीं बचे, तो देश किसके भरोसे विदेशी हमलावरों से युद्ध करेगा? छत्र और मुकुट के धोखे में मुगल सेना झाला से ही युद्ध में उलझी रही और राणा प्रताप सुरक्षित निकल गए।

इस युद्ध में हल्दी घाटी की माटी लाल तो हो गई लेकिन मुगलों के हाथ कुछ नहीं आया। वीरता के रण से उठी दास्तानें आज भी राजस्थान के लोकगीतों में घुल चुकी हैं। इन गीतों के स्वर आज भी युद्ध की स्मृतियां ताजा करते रहते हैं